Tuesday, April 17, 2018

जाग री

जाग री........

पता नहीं क्यों सुबह से ही लिखने का मन कर रहा था। यह तो नहीं जानती कि इस कविता का बसंत से क्या मेल है, पर बिना लिखे भी नहीं रहा जा रहा। हो सकता है, कि छायावादी ऋतुओं का अवसान ही बसंत का आगमन है, पर यह बहुत ही प्रेरणादायी है। आशा है, हम सभी के जीवन में यह कविता कहीं-न-कहीं सटीक बैठती होगी। पर आज के दिन इस कविता ने मेरे भीतर सुर पकड़ा हुआ है, आप भी इसे पढ़िये।

बीती विभावरी जाग री
बीती विभावरी जाग री!

अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा-घट ऊषा नागरी!

खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर ला‌ई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी

अधरों में राग अमंद पिए
अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सो‌ई है आली
आँखों में भरे विहाग री!
                                    द्वारा - शिप्रा पाण्डे शर्मा, Facebook wall

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