Friday, April 13, 2018

अग्निशमन

छोटी-सी फ्रॉक पहनूं,
या पहनूं पैंट-शर्ट,क्या फर्क पड़ता है,
देखते हैं लोग मुझे सिर्फ एक ही नज़र से,
घूरते हैं भेड़ियों से, निगाहें कोटर में डाले,
करूं क्या मैं अपनी उम्र का,
बचपन है मेरा, ये जनाज़ा जो निकाले
कभी मेरी फिक्र के नाम पर, कभी इज्जत,
तो कभी सभ्यता का हवाले,
छलनी ही हो रही हूं समुदायभर में,
किंचित कोई कृष्ण हो जो संभाले।

क्या फर्क पड़ता है कि कमीज के साथ
मैं चुन्नी जो डालूं,
उभरता शरीर है मेरा, अरे मैं क्यों किसी से छिपा लूं?
छिपा लो तुम शर्म,लज्जा अपनी जो टप-टप गिर रही है,
राह चलती हर ह़या पर जो हरपल मर रही है,
जिंदा हो तुम, वैसाखी के सहारे चल रहे हो,
मेरी चिंता छोड़ तो, तुम जिंदा चिता में जल रहे हो।

कभी सोचा है किंचितप्राय ,क्या कुछ बचा है,
भीतर झांक के देखो, मृतप्राय तू खड़ा है,
जो भी है तू, आदमी, मर्दानगी का नाप जपता,
नारी,ना रही, तो तू कैसे बनता,
आंखों से लेकर वीर्य तक में तेरे खून उतरा
बाग से लेकर बियाबां तक फूल कुतरा,
कहां जायें,कहां कूचें,हम अब इस जहां में,
बिना जीवन जीये ही अग्नि में खुद को लील डाले
दुराचारी तू अपने भीतर की ज्वाला का खुद शमन कर
अपमान मत कर नारी का,तू यह चयन कर
हर मां, हर एकपल नहीं तो बस यह कहेगी,
आज से मेरी कोख सूनी ही रहेगी।

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