Tuesday, April 10, 2018

तुम लगते हो

वो जो तुम चुप से लैपटॉप पर
चिपके पड़े रहते हो,एकदम फुस्स से दिखते हो,
फ्यूजड़,कनफ्यूजड़ और सिर झुकाए,
एकदम भी सही नहीं लगते,
सही लगते हो जब मेरी एक ही फोटो को निहार,
उसपर अपना ठेंगुआ दबा देते हो।

वेब पेज के पन्ने पलटते,
जब कभी चौंक के भौंहे चढ़ा लेते हो,
और कभी किसी वाहियात से चुटकुले को पढ़,
मंद-मंद मुसकाते हो,
तब भी तुम उतने अच्छे नहीं लगते,
पर जब अकेले में बैठ दो कप चाय की गुहार
लगाते हो, सच में तब तुम, तुम लगते हो।

कभी ऐनी,कभी टेनी,कभी रिंकी,कभी पिंकी
से जब तुम घंटों फोन पर हूं-हां बतियाते हो,
या कभी कमरे में बंद कर खुद को,
किसी गहन मुद्दे पर सिर खपाते हो,
अच्छे नहीं लगते सच्ची, मैं सिर पीटकर रह जाती हूं,
पर जब फोन के चार्जर के बहाने मुझको पास बुलाते हो,
तब लगते हो,कुछ खाली-से,और मेरी खुशबू से ही भर जाते हो।

तुम्हारे इस खाली उपवन में,कुछ घासें जो उग आई हैं,
बिना फूल के देखो तो, ये कितनी मुरझाई हैं,
कोई भंवरा नहीं इनमें, न ही मधुमक्खी इठलाती है,
छी, कैसा मधुमास यहां, मुझको ये न भाती हैं,
पर पास बैठ जब ये उपवन खुद लहर-लहर लहराते हैं,
फिर क्या लैपटॉप, चाय के कुल्हड़, पास फटक नहीं पाते हैं,
तब लगता है तुम यहीं कहीं हो पास मेरे,
इस कंधे में हो सिर मेरा, और दूर रहें ये काम मेरे।

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